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'कहानी'

कहानीः अंतिम झूठ

15-Nov-2018

By:  sachin



घर की सफाई, खाना, चौका-बर्तन आदि निपटाने के बाद शीला अधमरी-सी हो गई थी। कुछ पल सुस्ताने के लिए वह खाट पर लेटी ही थी कि कर्कशा घंटी की आवाज से वह चौंक पड़ी। ‘इस वक्त कौन आ गया… एक मिनट का भी चैन नहीं है।’ बड़बड़ाते हुए उसने घर का दरवाजा खोला। बाहर कालू ड्राईवर कुटिल मुस्कान के साथ सलाम की मुद्रा में खड़ा था। उसे देख कर एकबारगी वह सहम गई। ‘क्यों आया है यहां? अब क्या चाहते हो तुम लोग।’ शीला क्रोधवश लगभग कांपते हुए चिल्लाई। ‘धीरे भाभी जान, धीरे, इतना भी क्या गुस्सा। अशरफ भाई ने कहलाया है कि वे कल ही अजय को माउंट आबू में देख कर आए हैं। भाई कह रहा था कि अजय का तो हम खयाल रख लेंगे, लेकिन भाभी जान, आपको हम पर भी रहम तो करना ही पड़ेगा।’ कालू ने शीला से रहम मांगी भी तो एक प्रच्छन्न-खतरनाक धमकी के अंदाज में। ‘उसे अजय से मिलने की क्या जरूरत है। तुम लोग हमारा पीछा क्यों नहीं छोड़ते।’ इस बार शीला के चेहरे पर क्रोध कम और भय की छाया अधिक तैर रही थी। ‘भाभी जान, अभी असल काम तो बाकी है। अशरफ भाई की बात मान लो। और हां, पेशी इसी महीने की तेईस तारीख को है, सो ध्यान रखना।’ कालू अपनी गोल टोपी कुछ नीचे-ऊपर खिसकाते हुए वहां से खिसक गया। शीला घर का दरवाजा जोर से बंद कर उससे सट कर, बेजान-सी गिर पड़ी। आखें शून्य की ओर टिकाए वह सिसकने लगी। शीला करीब पंद्रह साल पहले उदयपुर अपने ससुराल में लालसिंह की दुल्हन बन कर आई थी। उसका पति आबकारी विभाग में क्लर्क था। घर में शीला के सेवा-निवृत्त अध्यापक ससुर के अलावा कॉलेज में पढ़ रही ननद सीमा और देवर सुरेश भी थे। ससुरजी अपनी पेंशन सीधे बैंक में जमा करा देते। घर का खर्च लालसिंह ही वहन करता था। विवाह के प्रारंभिक दिनों में वह अपने पति से मिले प्रेम और ससुरालवालों के व्यवहार से संतुष्ट थी, लेकिन घर में आय से कई गुना अधिक ऐशो-आराम की चीजों और खुले हाथ से हो रहे खर्च से उसे कुछ शंका होने लगी। कभी-कभी लालसिंह रात में शराब पीकर भी आ जाता था। समय बीतता गया और कुछ अरसे बाद ही शीला को सब कुछ साफ नजर आने लगा। लालसिंह कभी-कभी पूरी रात घर से गायब रहने लगा। कई बार अशरफ जैसे संदिग्ध चरित्र के आदमी के साथ आधी रात तक घर में बैठ कर शराब पीने लगता। ‘इस तस्कर के साथ आधी रात तक शराब पीकर क्या खुसर-पुसर करते रहते हो?’ शीला ने लालसिंह को एक रात झिड़क ही दिया। ‘तस्कर नहीं, शराब का बड़ा ठेकेदार है वह, बहुत बड़ा आदमी है। मैं भी तो आबकारी विभाग का मुलाजिम हूं। काम तो उससे पड़ता ही है, ये तुम औरतों का काम नहीं है। चल सो जा, ‘लालसिंह शीला पर आंखें तरेरते हुए गुर्राया। राजस्थान के उदयपुर से लगती हुई गुजरात की सीमा है। गुजरात में नशाबंदी से राजस्थान की सीमा से अवैध शराब की भारी तस्करी गुजरात में धड़ल्ले से होती है। इसमें अवैध शराब माफिया के अनेक गिरोह सक्रिय हैं, जो ऊपर से संरक्षण पाकर दोनों राज्यों की पुलिस और आबकारी वालों को खुश रख कर अवैध धंधे को निर्बाध चलाते रहते हैं। कभी-कभी इन तस्करों की आपसी होड़ और दुश्मनी के कारण उनके आपस में मारपीट, यहां तक कि कत्ल की घटनाएं भी होती रहती हैं। इस इलाके में मुख्यत: अशरफ, कमलसिंह और राजू राणा के ही तस्कर गिरोह थे। इनमें सबसे खतरनाक तस्कर अशरफ ही था। विवाह के एक साल बाद ही शीला ने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिसे वह गर्व से अजयसिंह कह कर पुकारती थी। अजय की बाल सुलभ क्रीड़ाओं के दिव्य आनंद में खोकर वह कुछ पल अपनी चिंताओं को भूले रहती। अजय को एक नेक अफसर बनाने का सपना उसकी आंखों में तैरने लगा था। लेकिन इधर कुछ अर्से से लालसिंह अपने असली रंग में आ गया था। वह प्राय: रोज ही शराब के नशे में धुत देर रात घर पर आता और शीला के साथ गाली-गलौच करता। कभी-कभार मारपीट भी कर देता। शराब के नशे में वह शीला के साथ वहशियाना हरकतों पर उतर आता। आज अजय को ग्यारहवां साल लगने जा रहा था। उसके जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक अच्छी पार्टी भी रखी थी। मगर अजय उदास था। सभी मेहमान आ गए थे, लेकिन उसके पापा अभी तक नहीं आए थे। आखिर वे रात ग्यारह बजे नशे में धुत हालत में आए। तब तक अजय सो चुका था और सभी मेहमान जा चुके थे। शीला ने आज लालसिंह को खूब खरी-खोटी सुनाई, लेकिन लालसिंह पर उसका कोई असर नहीं हुआ, न होना था। उसी रात करीब दो बजे लालसिंह के घर के बाहर किसी ने घंटी बजाई। दूसरी, और फिर तीसरी बार घंटी बजी। लालसिंह उठ कर आंखें मलते हुए दरवाजे की ओर बढ़ा। उसके पीछे आशंकित शीला भी आई। लालसिंह ने जैसे ही दरवाजा खोला सामने पहाड़ से शरीर वाला अशरफ अपने दो गुंडे, दीपक चिकना और ड्राइवर कालू के साथ खड़ा था। पलक झपकते ही अशरफ ने अपनी पीठ पीछे छुपाया एक फुटा रामपुरी चाकू पूरा का पूरा लालसिंह के पेट में घुसेड़ते हुए बोला, ‘जन्मदिन मना लिया, अब गद्दार की मौत का जश्न हम मनाएंगे।’ लालसिंह की आंतें बाहर आ गर्इं और वह वहीं ढेर हो गया। शीला यह सब देख कर भयंकर चीख के साथ बेहोश हो गई। अशरफ और उसके साथी एक काले शीशों की वैन में बैठ कर वहां से गायब हो गए। फिर वही। पुलिस का मौके पर देर से आना। फआईआर, पंचनामा, पोस्टमार्टम, मुलजिमों को पकड़ने की कोशिश का पुलिस-नाटक, आबकारी विभाग के कर्मचारियों की एक दिन की सांकेतिक हड़ताल वगैरह, वगैरह।शीला ने अशरफ और उसके दोनों साथियों के विरुद्ध पुलिस में एफआईआर करा दी। वही इस जघन्य कत्ल की एक मात्र प्रत्यक्षदर्शी गवाह थी। मुकदमे का पूरा दारोमदार शीला की एकमात्र गवाही पर टिका था। सदमे से कुछ उबरने के बाद शीला ने कसम खाई कि वह अपने पति के हत्यारों को फांसी के फंदे तक पहुंचा कर रहेगी। अशरफ और उसके दोनों साथी फरार हो गए थे। करीब नौ माह तक कोई मुलजिम पकड़ में नहीं आया। फिर एक दिन दीपक चिकना और कालू ड्राईवर पकड़े गए। मुख्य कातिल अशरफ के शराब तस्करी के साम्राज्य का संचालन उसी के इशारों पर जारी था। वह उदयपुर के इर्द-गिर्द कस्बों में खुलेआम घूम रहा था, लेकिन पुलिस के कागजों में वह फरार था। पुलिस ने आखिर दीपक चिकना और कालू के खिलाफ लालसिंह के कत्ल के षड्यंत्र के आरोप में अदालत में चालान पेश किया और कुछ दिन बाद वे जमानत पर भी छूट गए। शीला को आबकारी विभाग से ही पता चला कि उसका पति पहले अशरफ के अवैध धंधे में उसके साथ था, लेकिन फिर लोभ में आकर अशरफ के दुश्मन कमलसिंह की शह पर अशरफ के तीन ट्रक अवैध शराब से भरे पकड़ा दिए थे। इसी दगाबाजी के कारण अशरफ ने उसका कत्ल किया। इन छह महीनों में शीला के सपने चूर-चूर हो गए थे। उसकी कसम खुद उसके और अजय के जीवन पर मंडरा रहे खतरों से क्षीण हो गई थी। पुलिस की अपराधियों से मिलीभगत साफ थी। स्वयं उसके ससुराल वाले उसकी मदद करने के स्थान पर पैसों के लालच में अशरफ से राजीनामा कर लेने का दबाव डालने लगे। उसे कातिलों की धमकियों और पुलिस की मिलीभगत से यह विश्वास हो गया कि उसे और अजय को खत्म करना अशरफ के बाएं हाथ का खेल है। उसे एक बारगी अपना स्त्री होना दुर्भाग्यपूर्ण लगा। उसके भाई ने कुछ मदद अवश्य की। अजय माउंट-आबू की गुरु-शिखर पब्लिक स्कूल में पढ़ रहा था। उसकी पढ़ाई का खर्चा वह वहन करने लगा, लेकिन कुछ अर्से बाद शीला के भाई के भी गंभीर रूप से दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर इस व्यवस्था में रुकावट आ गई। शीला का आत्मविश्वास टूटने लगा था। आज, कालू ड्राईवर ने आकर जो उसे कहा, उससे अजय का जीवन उसे गंभीर रूप से खतरे में लगा। उसके भविष्य की चिंता और गहरा गई थी। कृषकाय, आंखों के नीचे काली छाया के धब्बे और मस्तक पर उसकी चिंता की स्थायी रेखाओं से शीला चालीस की होते हुए भी पचास से कम की नहीं लगती थी। उसने कातिल अशरफ को गिरफ्तार करने और उसकी तथा अजय की रक्षा के लिए पुलिस के सभी आला अफसरों से बार-बार गुहार की, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। उस दिन अदालत खचाखच भरी थी। लालसिंह कत्ल केस की सुनवाई में शीला का बयान जो होना था। पूरी अदालत में उस समय सन्नाटा छा गया जब शीला ने अपने बयान बदल दिए और किसी भी मुलजिम को पहचानने से इंकार कर दिया। उसने यहां तक कह दिया कि वह फरार मुलजिम अशरफ को भी नहीं जानती। उसने अपने पति के पेट में चाकू मारते किसी को नहीं देखा। शीला को पक्षद्रोही गवाह करार दिया गया। जब उससे पूछा गया कि कत्ल के बाद उसने अपनी हस्ताक्षरित एफआईआर में मुलजिम अशरफ द्वारा लालसिंह के पेट में चाकू मारते देखना लिखाया था, तो वह उससे मुकर गई और कहा कि एफआईआर पर दस्तखत करते समय वह सदमे की हालत में थी, उसे नहीं मालूम कि उसमें क्या लिखा हुआ था। अशरफ और उसके गुंडों की बांछे खिल गई थीं। पूरा मुकदमा जो एकमात्र चश्मदीद गवाह शीला के बयान पर निर्भर था, ढह चुका था। नतीजा वही हुआ जो होना था। दीपक चिकना और कालू ड्राईवर बरी कर दिए गए। कालांतर में योजनाबद्ध तरीके से अशरफ ने समर्पण किया और वह भी शून्य साक्ष्य के कारण और शीला के झूठे बयान के आधार पर उस कत्ल के आरोप से बरी हो गया। न्यायाधीश ने मुलजिमान को बरी करते हुए अपने निर्णय में लिखा कि सच बोलने की शपथ लेकर भी शीला ने मुलजिमान को सजा से बचाने के लिए झूठ बोला, जिसके लिए उस पर सशपथ झूठ बोलने के लिए धारा एक सौ तिरानवे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाए। लेकिन शीला के चेहरे पर ग्लानि का कोई भी भाव नहीं था। इसके विपरीत उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की आभा झलक रही थी। शीला कभी-कभार उदयपुर से करीब दस किलोमीटर दूर तलहटी में स्थित एक मौनी बाबा से आशीर्वाद लेने जाया करती थी। उसे उन पर प्रगाढ़ श्रद्धा और विश्वास था। वे उसकी व्यथा को समझते थे और स्लेट के टुकड़े पर खड़िया पेंसिल से कुछ लिख कर उसे सांत्वना देते थे। उस दिन शीला ने बाबा से कुछ कान में कहा। बाबा ने उत्तर में अपने दोनों हाथ ऊठाते हुए आकाश की ओर निर्विकार दृष्टि फेंकी। फिर स्लेट पर लिखा, ‘खौलते पानी में कोई अपनी शक्ल नहीं देख सकता, थोड़ा धीरज रख, अपने इस दर्द और सपने को हमेशा जिंदा रखना। फकीर के पास सोना नहीं हुआ करता, लेकिन उसके पास कसौटी जरूर होती है, जो मैं तुझे देता हूं। तुम इससे जिंदगी की खोट को परखते रहना।’ शीला इस गुरुमंत्र को पाकर प्रफुल्लित थी। मानो उसमें नई ऊर्जा भर गई हो। उसका बेटा अजयसिंह राजस्थान पुलिस सेवा में चयनित होकर पुलिस उप-अधीक्षक बन गया। समय ने शीला के लिए एक और सुखद करवट ली। कुछ अरसे बाद ही एक दिन अजयसिंह लगभग दौड़ते हुए शीला के पास आया और हांफते हुए बोला, ‘कुछ सुना मम्मी, अशरफ का कत्ल हो गया, उसके ड्राईवर कालू ने ही तलहटी-जंगल में उसे गोली मार दी। ‘अरे…! अच्छा…? कर्म का फल तो मिलता ही है न बेटा!’ शीला यह कह कर अपने काम में लग गई। आज फिर अदालत खचाखच भरी थी। एक बार फिर शीला अदालत के कठघरे में खड़ी थी। अंतर केवल इतना था कि आज वह गवाह के कठघरे में खड़ी न होकर मुलजिम के कठघरे में खड़ी थी। लेकिन आज वहां खड़ी एक लाचार, हताश और टूटी हुई शीला नहीं थी। आज उसके मुख मंडल पर गांभीर्य मिश्रित आक्रोश की छाया भी तैर रही थी। कठघरे के बाहर उसका पुत्र अजयसिंह पुलिस उप-अधीक्षक अपनी मां की मदद में खड़ा था। मां की पैरवी के लिए उसने शहर का नामी फौजदारी वकील खड़ा कर रखा था। ‘आपने सरकार बनाम अशरफ वगैरा के मुकदमे में सेशन न्यायालय में शपथ लेकर झूठे बयान दिए, जिनके अंश संलग्न हैं। इस प्रकार आपने भारतीय दंड संहिता की धारा एक सौ तिरानबे के अंतर्गत अपराध किया। क्या आपको आरोप मंजूर है या मुकदमा लड़ना चाहोगी।’ मजिस्ट्रेट ने शीला को आरोप पढ़ कर सुनाया। ‘मुझे आरोप मंजूर है।’ शीला ने बेझिझक आरोप स्वीकार किया। वहां सभी उपस्थित लोग यह देख कर चकित रह गए। इधर शीला का वकील और बेटे अजयसिंह को काटो तो खून नहीं। वे शीला को समझाने लगे, ‘यह क्या कर रही हैं आप! अगर आरोप ही मंजूर करना था, तो फिर ये वकील और हम सबकी भाग दौड़…! मजिस्ट्रेट भी विस्मय में थे। आमतौर पर ऐसे आरोप को कोई मंजूर नहीं करता और फिर आज तो एक पुलिस उप-अधीक्षक की मां का मामला था। ‘लेकिन जज साहब, इससे पहले कि आप मुझे मेरे इस अपराध की सजा सुनाएं, मेरी अदालत से प्रार्थना है कि मुझे कुछ निवेदन करने का अवसर दिया जाए।’ शीला ने मजिस्ट्रेट से प्रार्थना की। हां, इजाजत है।’ मजिस्ट्रेट ने कहा। अदालत में एक बार फिर सन्नाटा छा गया। सभी लोग शीला की ओर मुखातिब थे। ‘हां, मैंने सच बोलने की सौगंध खाकर भी झूठ बोला है। मैं ही वह पापिन हूं, जिसने अपने पति के कातिल से आठ लाख रुपए लेकर अपने बयान बदले, आप मुझे कड़ी से कड़ी सजा दें।’ शीला की आंखें सजल हो गर्इं और गला रुंधने लगा। ‘लेकिन मैं बहुत मजबूर और लाचार थी, जज साहब। मेरे पति की हत्या के बाद मेरे जीवन की सारी आशाएं मेरे इकलौते पुत्र अजय के भविष्य पर टिकी थी, जो उस समय केवल ग्यारह वर्ष का था।’ ऐसा कहते हुए शीला ने एक बार अपने सजल नेत्रों से पास ही खड़े अजय की ओर देखा। अजय ने भी आंखों ही आंखों में उसे अपनी मां पर गर्व होने का विश्वास जताया। ‘मेरे पति की चिता की राख ठंडी भी नहीं हुई थी कि मुझे उस सदमे वाली हालत में कातिलों से धमकियां मिलने लगी कि अशरफ से मनचाही रकम लेकर राजीनामा कर लो, नहीं तो मुझे और अजय को भी मार दिया जाएगा। यहां तक कि पैसों के लिए मेरी ससुराल वाले भी कातिलों से राजीनामा करने के लिए मुझ पर दबाव डालने लगे। मैं असहाय अकेली बेवा, नीचे से ऊपर तक पुलिस के सभी अफसरों से अपनी और अजय की रक्षा के लिए गुहार करती रही, लेकिन पुलिस के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।’ शीला कुछ हांफने लगी थी। आधा गिलास पानी पीकर वह कुछ संयत हुई। ‘मैं यह पूछती हूं जज साहब, जब कातिल खुलेआम शहर में घूम रहे थे और पुलिस उन्हें कागजों में फरार बता रही थी… और जब यह पूरा पुलिस महकमा अशरफ के टुकड़ों पर रोज मुफ्त का गोश्त और दारु उड़ा रहा था तब… तब आज इस कठघरे में मेरी जगह पुलिस क्यों नहीं है? और अगर उस कुत्ते के हाथों अपने बेटे सहित बेमौत मरने की जगह मैंने उसी की रकम से जिंदा रह कर अपने बेटे को पाल-पोस कर पढ़ाया लिखाया और उसे एक ईमानदार पुलिस अफसर बना दिया तो मैंने क्या गुनाह किया?’ शीला आवेश में कांपने लगी। उसे अजय ने सहारा नहीं दिया होता, तो वह कठघरे में गिर गई होती। ‘अब आप जो ठीक समझें, मुझे सजा दें।’ शीला ने मजिस्ट्रेट के समक्ष हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुए अपनी बात पूरी की। मजिस्ट्रेट ने समस्त हालात पर गौर कर शीला के प्रति नरमी बरतते हुए उसे एक माह के साधारण कारावास और एक हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। अशरफ के कत्ल के जुर्म में उम्र कैद भुगत रहे कालू ड्राईवर ने बीमार हालत में एक दिन जेलर को बतलाया कि अशरफ द्वारा दी गई राजीनामे की आठ लाख की रकम में से स्वयं शीला ने दो लाख रुपए उसे अशरफ को जान से मारने के लिए दिए थे।


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