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'नज़रिया '

नज़रिया: अकबर के इलाहाबास को अंग्रेज़ों ने बना दिया था इलाहाबाद

16-Nov-2018

By:  sachin



इलाहाबाद अब आधिकारिक रूप से प्रयागराज बन गया है. 16 अक्तूबर की दोपहर को आधिकारिक तौर पर नाम बदल दिया गया. इधर नामकरण हुआ, उधर सोशल मीडिया पर मज़ेदार चुटकुलों की बौछार शुरू हो गई. "तो कहां की पैदाइश है आपकी?" "प्रयागराज" "अरे! प्रयागराज के कौन से कोच में." दरअसल, इलाहाबाद से दिल्ली के बीच चलने वाली सबसे मशहूर ट्रेन का नाम प्रयागराज एक्सप्रेस है. इस तरह के बहुत से जोक सोशल मीडिया पर आए. जिस पर हर तरह की प्रतिक्रिया आई. किसी ने हंसकर जवाब दिया तो किसी ने दुख ज़ाहिर करता हुआ ईमोजी पोस्ट किया. शहर का नाम बदले जाने को लेकर लोगों की काफ़ी मिली-जुली प्रतिक्रिया है. लेकिन नाम बदलने से जिस एक चीज़ पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा है वो है यहां के कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक विचार पर, एक समावेशी शहर का विचार. हिंदू पौराणिक कथाएं और धर्म इस शहर की गहराई में बसा हुआ है. हिंदू धर्म की अवधारणाओं में इस शहर का महत्वपूर्ण स्थान है. यह शहर तीन नदियों का संगम स्थल है, जिसकी हिंदू धर्म में अपनी मान्यता है. साथ ही मोक्ष प्राप्ति का स्थल भी है. लेकिन इस शहर का महत्व सिर्फ़ हिंदुओं के लिए नहीं है, यह मुस्लिमों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है. यहां मुस्लिमों की भी घनी आबादी है साथ ही यूरोपीय प्रभाव भी है जिसने शहर को बहुत हद तक बदला है. इनके अलावा ग्रीक, स्काइथियन, पार्थियन और हूण आदि भी सदियों से यहां बसे हुए हैं. धर्म, पंथ और जाति की ये विविधता इस शहर को निश्चित रूप से एक उदार सभ्यता और संस्कृति वाले शहर के रूप में पेश करती है. एक शहर जो सभी के लिए समान रूप से बाहें फैलाए हुए है. समुदायों का संगम इलाहाबाद शहर का विचार विभिन्न समुदायों के संगम से आया है. और ये विचार सिर्फ़ कोई रूमानी ख़याल नहीं है बल्कि कुछ साल पहले तक इस शहर में बसने वाले लोगों ने इसे जीकर यहां दिखाया है. यहां तक की यहां की ज़ुबान 'इलाहाबादी' शुद्ध हिंदी, जिसमें उच्चकोटि की उर्दू ज़ुबान का तड़का है और ये बेहद आसानी से अंग्रेज़ी के साथ बहती हुई मालूम पड़ती है. यहां की स्थानीय बोली में समान रूप से विविधता तो है ही लेकिन ये समृद्ध भी बहुत है और इसी भाषा में शहर में साहित्य का विकास हुआ, आज़ादी से जुड़े इतिहास और आंदोलन की भाषा भी यही रही. लेकिन जब राजनीतिक वातावरण बदला तो इसका असर शहर के प्राकृतिक स्वरूप पर भी पड़ा. लोगों की सोच में भी दो फाड़ नज़र आने लगे कि दरअसल इस शहर का असल स्वरूप क्या है. एक पक्ष जहां आक्रामक और पुरातन हिंदू आत्म-सम्मान के तर्कों पर पर ज़ोर देता है वहीं उतनी ही संख्या में एक दूसरा पक्ष ऐसा भी है जो इस शहर की मूल पहचान के खोने से दुखी है. एक बहुत ही लोकप्रिय फ़ेसबुक ग्रुप में लोगों की बिल्कुल दो अलग-अलग राय देखने को मिली. कुछ लोगों ने नाम बदलने को लेकर जहां बेहद ख़ुशी जताई, वहीं कई लोगों को यह नाम बदला जाना पसंद नहीं आया और उन्होंने खेद व्यक्त किया. भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. कुछ लोग इसे हिंदुओं की 'दूसरों' (मुसलमानों) पर प्रतीकात्मक जीत के रूप में देख रहे हैं, उनके लिए ये बधाई का मौक़ा है, विजय की संतुष्टि का क्षण है. क्योंकि मुग़ल सम्राट अकबर ने इस शहर को इलाहाबास नाम दिया था, जिसका मतलब होता है 'भगवान का घर'. इलाहाबास नाम को ही बदलकर अंग्रेज़ों ने इलाहाबाद कर दिया. जिसे कुछ दक्षिणपंथी हिंदुओं ने 'अल्लाह' से जोड़कर देखना शुरू कर दिया. हालांकि कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि ये सिर्फ़ नाम बदले जाने का मसला नहीं है बल्कि इतिहास में हुई एक भूल को सुधारने जैसा है लेकिन साथ ही वो ये भी कहते हैं कि नाम बदल जाने के बावजूद इस शहर का जो धर्मनिरपेक्ष चरित्र है, वो बरक़रार रहेगा. लेकिन कुछ कट्टरवादी इसे उस कथित ग़ुलामी की समाप्ति के तौर पर भी देख रहे हैं जिसके तहत मुसलमान और अंग्रेज़ों जैसे हमलावरों और साम्राज्यवादियों की संस्कृति का पालन किया जा रहा था. इलाहाबादी उपनाम वहीं दूसरी तरफ़ बहुत से इलाहाबादी जो इस शहर में रहते हैं और वो भी जो इस शहर में नहीं रहते हैं, शहर के अतिप्रिय और बेहद पुराने नाम के बदले जाने से बहुत दुखी हैं. उनके ज़हन में इलाहाबाद के नाम से ही उनके घरों की यादें बसी हुई हैं. कुछ नागरिकों ने तो 'इलाहाबादी' को ही अपना उपनाम बना लिया और धर्म, वर्ण और क्षेत्रीय उत्पत्ति की सीमाओं से इतर ख़ुद को इलाहाबादी कहलाना पसंद किया. इन दोनों ख़ेमों के लोगों के बीच बहुत ही विद्वेषपूर्ण बहस भी हुई. लेकिन एक बहुत ही मज़ेदार तीसरा पक्ष भी है. इस तीसरे पक्ष में ऐसे लोग हैं जो दोनों विचारधारा का समर्थन करते हैं और एक तरह से देखा जाए तो ये किनारे पर बैठें ऐसे लोग हैं जो बिना किसी परेशानी के आसानी से अपनी पोज़ीशन बदल लेते हैं. जैसा कि मैं समझ और देख पा रही हूं तो इलाहाबाद शहर का ये नया नाम प्रयागराज सिर्फ़ आधिकारिक तौर पर काग़ज़ पर होगा. सुनने में तो ये भी आया है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय का नाम भी बदला जाएगा. लेकिन लोगों की ज़ुबान पर तो इलाहाबाद ही रहेगा. और ये भी हो सकता है कि कुछ लोग चिढ़ कर भी इलाहाबाद का नाम और ज़ोर-शोर से लें. राजनीति के शतरंज पर प्रयागराज और इलाहाबाद इन दो नामों को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन सच्चाई ये है कि एक ओर जहां प्रयागराज का पुरातन महत्व है वहीं इलाहाबाद डाक के पते और साइनबोर्ड से तो हट सकता है लेकिन लोगों के ज़हन से नहीं. इलाहाबाद नाम शहर की आत्मा में इस तरह से बसा हुआ है कि शहर की कई आवाज़ों में इसे बोला जाता रहेगा, बजाए इसके कि सत्ता में बैठे लोग चाहते हैं कि शहर का न सिर्फ़ एक नाम (प्रयागराज) हो बल्कि सोच और विचारधारा भी एक ही हो. मेरा ऐसा विश्वास है कि प्रयागराज और इलाहाबाद नाम भी ठीक उसी तरह इस्तेमाल किए जाएंगे जिस तरह वाराणसी, काशी और बनारस. मेरे जैसे लेखकों के लिए जिनके आंतरिक और बाह्य जीवन में इलाहाबाद रचा-बसा है, हो सकता है कि उनके लिए ये एक रचनात्मक चुनौती हो और इस बात की भी पूरी संभावना है कि इससे एक नई सोच का जन्म हो. मैंने ज़िंदगी भर उस इलाहाबाद के बारे में लिखा है जिसे मैं जानती हूं, जिसमें भारतीय, इस्लामिक और यूरोपीय सभी सभ्यताओं का अंश शामिल है. लेकिन अब जबकि इलाहाबाद का नाम आधिकारिक तौर पर हटा दिया गया है, हो सकता है कि इलाहाबाद के नाम से मैं जिस दुनिया के बारे में सोचती हूं वो मेरे भविष्य के काम में और पुरज़ोर तरीक़े से दिखे. आने वाले कुछ वर्षों तक, कई लोगों को जिनकी जड़ें इस शहर में रची-बसी हैं, उनके लिए इस तरह शहर का नाम बदला जाना ऐसा मालूम होगा जैसे उन्हें किसी दूसरी जगह जाकर रहने के लिए मजबूर कर दिया गया हो. लोग धीर-धीरे इस सच्चाई से समझौता कर लेंगे लेकिन ये भी हो सकता है कि प्रयागराज नाम रखने के बाद लोगों को इलाहाबाद और उससे जुड़ी विचारधारा और ज्यादा सच लगने लगे. जो चीज़ें चली जाती हैं वो दिलो द़िमाग़ पर और ज़्यादा गहरी छाप छोड़ती हैं, उससे भी ज़्यादा जब वो आपके पास और सामने होती हैं लेकिन आप उसकी अहमियत की अनदेखी करते रहते हैं. एक स्थानीय कहावत है कि आप एक व्यक्ति को तो इलाहाबाद से दूर ले जा सकते हैं, लेकिन आप उस शख़्स से इलाहाबाद को अलग नहीं कर सकते हैं. इलाहाबाद को इलाहाबादियों के दिलो दिमाग़ से निकाल पाना आसान नहीं है.


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    ऐसे ही एक कर्मवीर हैं ढोली बुआ पुल के वर्कशॉप पर पदस्थ वाहन चालक श्री अनिल राजपूत, इनका कार्य तो केवल वाहन चलाना है लेकिन इस वैश्विक संकट के बीच श्री राजपूत और इनके साथ ही इनके जैसे ही अनेक वाहन चालक ऐसे भी हैं, जो कचरा जैसे संक्रमण के वाहक को उठवा कर गलियों व मोहल्लों को संक्रमण के भय से मुक्ति दिलाते हैं और कचरा लैंडफिल साइट तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी के साथ निभा रहे हैं। इनके योगदान के बिना सफाई के कार्य को पूर्ण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि कर्मवीर सफाई संरक्षक तो अपना कार्य ईमानदारी से करते हैं और वह प्रतिदिन सड़कों व गलियों की सफाई कर कचरे को एक स्थान पर एकत्रित कर देते हैं, लेकिन यदि यह कचरा समय पर नहीं उठें , तो यह क्षेत्र वासियों के लिए संक्रमण व दुर्गंध का कारण बनते हैं। तब यही हमारे कर्मवीर वाहन चालक कचरे को उठवा कर अपने वाहनों में भरकर लैंडफिल साइट तक पहुंचाने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जहां पर कचरे को वैज्ञानिक तरीके से डिस्पोजल किया जाता है। 
    श्री राजपूत बताते हैं कि वह प्रतिदिन सुबह 6:00 बजे अपने घर से निकलते हैं और देर शाम तक ही घर पहुंच पाते हैं तथा घर पर बच्चों व परिजनों से पूर्ण सैनिटाइज्ड एवं नहाने धोने के बाद भी एक निश्चित दूरी बनाकर ही मिलते हैं और देश व समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूरी इमानदारी से कर रहे हैं। 


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